2019 में होने वाले सियासी जंग के दो बड़े रण बांकुरे, एक तरफ सबसे बड़ी पार्टी के नेता प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तो दूसरी तरफ हैं बुजुर्ग पार्टी के युवा अध्यक्ष राहुल गांधी। दोनों के बीच सियासी दांव-पेंच जारी है, एक दूसरे पर जमकर तीर छोड़े जा रहे हैं, घेरने का कोई भी मौका कोई छोड़ने के मूड में नहीं है, क्योंकि 2019 में होने वाले आम चुनाव सिर्फ सत्ता की सीढ़ी नहीं है बल्कि इन दोनों नेताओं की साख भी दांव पर लगी हुई है।
राहुल की अगुवाई में कांग्रेस 2019 का सपना
संजोए हुए है, इसके लिए सहयोगी दलों के साथ उनकी कदमताल भी चल रही है, क्षेत्रीय
दलों के साथ कांग्रेस का पुराना नाता रहा है, सियासत का ये रिश्ता कई बार परवान
चढ़ा, तो कई बार सूली पर भी लटकना पड़ा। गठबंधन के धर्म के सियासी दोस्तों को कैसे
लेकर चलना है ये कांग्रेस को भली भांति आता है, शायद कांग्रेस को छोड़कर किसी और
पार्टी को इसकी इतनी समझ नहीं जितनी की कांग्रेस को है। लिहाजा राहुल की ताजपोशी
के लिए पूरे जोर-शोर से बैंड बाजा और बारात की तैयारी है।
ऐसा नहीं है कि कांग्रेस जिन दलों से समर्थन
लेगी उसमें कोई योग्य नेता नहीं है, कई नेता हैं जो युवा हैं और जिन्होंने समय आने
पर अपनी सियासत समझ को साबित भी किया है। ऐसे में सवाल ये है कि क्या वैसे नेता
राहुल गांधी की अगुवाई स्वीकार करेंगे, वैसे भी थर्ड फ्रंट की कवायद कई बार हो
चुकी है, लेकिन अभी तक इसे अमली जामा नहीं पहनाया जा सका है, दूसरा सवाल ये भी है
कि आखिर मोदी के खिलाफ राहुल गांधी की चुनौती को कितना स्वीकार किया जाएगा। और कोई
राहुल को स्वीकार क्यों करेगा
कांग्रेस के सहयोगी दलों की बात करें तो एक तरफ
अखिलेश यादव हैं, जिन्होंने अपनी सियासी पहचान के लिए परिवार से ही पंगा ले लिया
था, वहीं, बिहार में तेजस्वी यादव जो कि पहले डिप्टी सीएम थे और अब नेता विपक्ष
बनने के बाद नीतीश कुमार और मोदी पर हमला बोलने का कोई मौका नहीं चूकते, बिहार में
विरोधी दल के नेता के रूप में वो कई बार खुद को साबित कर चुके हैं। पश्चिम बंगाल
में ममता बनर्जी, उनके अंदर भी पीएम बनने का सपना पल रहा है, जब वो नाराज होती हैं
तो किसी को नहीं बख्शती, ममता बनर्जी ना तो कांग्रेस को घेरने में कोई कोर कसर
छोड़ती हैं और ना ही मोदी सरकार में। अगर यूपी की बात करें यहां मायावती भी पीएम
की दावेदारी के लिए ताल ठोक सकती हैं, वो दलित वोट बैंक पर पूरी पकड़ होने का दावा
करती हैं, ऐसे में सवाल ये है कि आखिर मामता और माया राहुल की दावेदारी क्यों
मंजूर करेंगी। हरियाणा और पंजाब में बीजेपी और कांग्रेस ही दो बड़ी पार्टियां हैं।
ऐसे में उत्तर भारत में तो राहुल के लिए चुनौती किसी पहाड़ और समुद्र से कम नहीं।
अगर दक्षिण की तरफ बढ़े तो कर्नाटक में कांग्रेस
JDS के आगे घुटने टेक चुकी है, आंध्र प्रदेश में चंद्रबाबू अभी एनडीए से अलग हुए
हैं, और वो किस ओर जाएंगे अभी से ये कहा नहीं जा सकता तो तेलंगाना में भी
चंद्रशेखर राव किसे समर्थन देंगे ये कहा नहीं जा सकता है। तमिलनाडु में रिश्तों की
दुहाई देकर कांग्रेस DMK का साथ जरूर ले सकती है, लेकिन रजनीकांत और कमल हासन की
पार्टी का आधार क्या होगा और वो किस ओर जाएंगे ये अभी तक तय नहीं है।
लिहाजा इस आधार पर ये को कहा जा सकता है कि 2019
के लिए विपक्षी एकता को राहुल की नहीं समुद्र मंथन की जरूरत है, और इस मंथन के बाद
ही ये साफ हो पाएगा कि आखिर विरोधी एकता की अगुवाई कौन करता है और वो मोदी की
दावेदारी को कितनी चुनौती दे पाएंगे।